श्यामाचरण दुबे का जीवन परिचय: नमस्कार दोस्तों, हिंदी विज़न में आपका स्वागत है। आज हम बात करने वाले हैं "एस० सी० दुबे की जीवनी" के बारे में। यह भारत के बहुत ही जानेमाने समाजशास्त्री व प्रोफेसर थे। इनका समाजशास्त्र में योगदान काफी सराहनीय है। इन्होंने ग्रामीण , आदिवासी व जनजातीय जीवन पर अध्यन किया और इनपर अपने विचार व्यक्त किये। इन्होंने कई अवधारणाएं दी जो हमें आज भी शिक्षित और प्रेरित करती हैं और आने वाली पीढ़ियों को भी सही मार्ग दिखती रहेंगी।
इसीलिए आज के इस पोस्ट में हम आपको "S. C Dube ka jivan parichay" और इनकी उपलब्धियों और योगदान के बारे में भी विस्तार से जानेंगे।
तो चलिए बिना किसी देरी के शुरू करते हैं -
श्यामाचरण दुबे जी का जीवन परिचय - Biography of S.C. Dube in hindi
श्यामा चरण दुबे जी का जीवन परिचय |
प्रारंभिक जीवन
प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे का जन्म 25 जुलाई, 1922 में मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ अंचल के एक सुदूर गांव में हुआ था। राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत माता और कोर्ट ऑफ बार्ड्स के प्रबन्धक पिता से बालक श्यामाचरण दुबे को आरम्भ से ही ऐसी शिक्षा-दीक्षा मिलना आरम्भ हुई जिसने उन्हें एक सफल शिक्षक, अध्येता, लेखक और विश्लेषक बना दिया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के एक ऐसे प्राथमिक विद्यालय में हुई जहां विद्यार्थियों को टाटपट्टी पर बैठकर पढ़ना होता था।
श्यामाचरण दुबे की आयु जब केवल सात-आठ वर्ष की थी तभी उनकी माता का देहावसान हो गया। इसके फलस्वरूप बाद की पढ़ाई अपनी दादी के घर पर रहकर एक ऐसे स्कूल में होना आरम्भ हुई जहां वह छात्रावास में रहने लगे। यहीं से उन्होंने पढ़ने को अपना ध्येय बना लिया।
उनके अध्ययन का आरम्भ हिन्दी की पत्रिकाओं और पुस्तकों से चलकर अंग्रेजी के गूढ़ ग्रन्थों तक पहुंच गया। अध्ययन की इस ललक में किस्सों-कहानियों और लोकगाथाओं से लेकर श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों के प्रति उनकी रुचि बढ़ने लगी। इसी का परिणाम था कि बचपन से ही श्यामाचरण में संवाद और अभिव्यक्ति की एक अद्भुत क्षमता विकसित होने लगी।
शैक्षणिक जीवन
श्यामाचरण दुबे जब हाईस्कूल के विद्यार्थी थे तब अपनी रुचि और आर्थिक आवश्यकताओं के कारण उन्होंने फिल्म पत्रिकाओं के लिए लेखन आरम्भ किया। इस समय जब जबलपुर के मॉडल हाईस्कूल के छात्र थे तथा 14 वर्ष की आयु में उनके लिए अपने लेखों को पत्रिकाओं में छपा हुआ देखना रोमांचकारी अनुभव था।
इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् श्यामाचरण दुबे ने नागपुर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में प्रथम श्रेणी में ऑनर्स की स्नातक उपाधि प्राप्त की। लगभग 20 वर्ष के अन्तर से इस विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में ऑनर्स की स्नातक उपाधि प्राप्त करने वाले वह पहले छात्र थे।
इसी समय उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों और ग्रामीणों की लोक संस्कृति से सम्बन्धित लेख लिखना आरम्भ किए। उनके अनेक लेख 'हंस', 'विशाल भारत' और 'मॉडर्न रिव्यू' जैसे प्रतिष्ठित पत्रों में प्रकाशित हुए। राजनीति विज्ञान में अपनी अद्भुत क्षमता प्रमाणित करने वाले श्यामाचरण दुबे की रुचि मानव विज्ञान (Anthropology) में बढ़ने लगी तथा अपने शोध कार्य को उन्होंने छत्तीसगढ़ में रहने वाली 'कमार जनजाति' के अध्ययन पर केन्द्रित कर दिया।
इसी अध्ययन पर उन्हें पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त हुई। यह शोध कार्य जब 'द कमार' नाम की पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई तो यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित हो गयी। इस प्रकार लगभग 25 वर्ष की आयु में श्यामाचरण दुबे ने मानवीय संवेदनाओं को समझने और उन्हें अभिव्यक्त करने में अपनी क्षमता का परिचय दे दिया।
वैवाहिक जीवन
श्यामाचरण दुबे जब कमार जनजाति पर शोध कार्य कर रहे थे तथा यह शोध कार्य पूर्ण होने के स्तर पर था, उसी समय वह लीलाजी के सम्पर्क में आए। यह सम्पर्क विचारों और मनोवृत्तियों की समानता से प्रगाढ़ होने के साथ उनके विवाह में बदल गया। कौतूहलवश साथी लोग जब उनसे अक्सर यह पूछते थे कि अन्तर-उपजातीय तथा अन्तर-भाषीय होने के कारण क्या यह आपका प्रेम विवाह है, तो श्यामाचरण दुबे यही कहते थे कि बिल्कुल नहीं, क्योंकि मेरे दिमाग में अपनी भावी पत्नी के बारे में जो कल्पना थी, लीलाजी एकदम अलग हैं।
इसके बाद भी वास्तव में यह एक प्रेम विवाह था जिसने दो विचारकों को एक-दूसरे उससे के निकट आने का अवसर दिया। यह संयोग है कि प्रोफेसर दुबे तथा उनकी पत्नी लीलाजी अपने-अपने कार्यक्षेत्र में व्यस्त रहने के कारण अधिकांश समय तक एक-दूसरे से अलग रहते थे लेकिन उनके 50 वर्ष का वैवाहिक जीवन इतना सुखद रहा कि कभी किसी ने उन्हें एक-दूसरे की प्रशंसा के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में नहीं देखा।
शिक्षण काल
अपने शोध कार्य को पूर्ण करने के बाद श्यामाचरण दुबे का व्यावसायिक जीवन उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से आरम्भ हुआ जहां उन्होंने काफी समय तक मानवशास्त्र के प्रवक्ता और रीडर के रूप में अपनी सेवाएं दीं। इस बीच उन्होंने भारतीय ग्रामीण व्यवस्था का अध्ययन आरम्भ किया। इस क्षेत्र में ‘इण्डियन विलेज' (भारतीय ग्राम) उनकी सशक्त रचना है, जो आन्ध्र प्रदेश के शामीरपेट गांव को आधार बनाकर उन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन पद्धति और सामाजिक व्यवस्था को स्पष्ट करने के लिए लिखी।
दक्षिण भारत के किसी गांव का इतना गहरा और विस्तृत अध्ययन पहली बार किया गया था। इस पुस्तक को भी विदेशों में काफी सराहा गया। यह पुस्तक लगभग आगामी 20 वर्षों तक समाजशास्त्रियों के लिए ग्रामीण अध्ययन करने के लिए मार्गदर्शक का काम करती रही।
इसमें ग्रामीण जीवन के ऐसे अनेक पक्षों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया गया है जिनकी ओर पहले किसी ने ध्यान नहीं दिया था। इसके साथ ही उन्होंने एक अन्य पुस्तक 'इण्डियन चेंजिंग विलेजेस' (India's Changing Villages) में नियोजित विकास की प्रक्रिया का सूक्ष्म मूल्यांकन किया। भारत के सामुदायिक कार्यक्रम के बारे में भी इस पुस्तक का विश्लेषण बहुत प्रभावशाली
सन् 1952-1953 में 'स्कूल ऑफ ओरियंटल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज' और 'लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स' द्वारा संयुक्त रूप से लन्दन में आयोजित गोष्ठियों में एक ओजस्वी वक्ता और भारतीय मानवशास्त्री के रूप में हिस्सा लेकर उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता को प्रमाणित किया।
देश और विदेशों में आयोजित अनेक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और गोष्ठियों में भाग लेकर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए। इस बीच पेरिस में 'विकास और संस्कृति' विषय पर विचार करने के लिए एकत्रित हुए समाज विज्ञानियों के अन्तर्राष्ट्रीय कार्यदल का उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। इन व्यस्तताओं के बाद भी प्रोफेसर दुबे एक सफल शिक्षक के रूप में विद्यार्थियों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय रहे।
संवाद की संस्कृति में उनका अटूट विश्वास था। यही कारण है कि वे विद्यार्थियों और समाज वैज्ञानिकों के साथ विभिन्न विषयों पर संवाद करना ज्ञान के विकास के लिए जरूरी मानने लगे। सन् 1960 के प्रारम्भ में उनकी पुस्तक 'मानव और संस्कृति' का प्रकाशन हुआ तथा इस पुस्तक की प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है।
प्रोफेसर दुबे के जीवन का दूसरा पड़ाव मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय से आरम्भ हुआ जहां उन्होंने समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष का पद ग्रहण किया। इस विश्वविद्यालय में उन्होंने सन् 1974 तक अपनी अमूल्य सेवाएं प्रदान कीं। अपनी कार्यप्रणाली और प्रबन्धकीय क्षमता के कारण उन्हें एक कुशल प्रशासक के रूप में भी देखा जाने लगा। इसी क्षमता की सहायता से उन्होंने 'राष्ट्रीय सामुदायिक संस्थान' को प्रशिक्षण और अनुसन्धान का एक प्रमुख केन्द्र बना दिया। सन् 1974-75 में श्यामाचरण दुबे ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवान्स स्टडी' शिमला के निदेशक के रूप में काम करने लगे जहां उन्होंने अपनी अकादमिक और प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया।
उनके कार्यकाल में यह संस्था सामाजिक चिन्तन और शोध के स्तर पर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय परिचर्चाओं का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गयी। उन्होंने सत्ताधीशों की सनक की तुलना में अकादमिक विकास और अभिव्यक्ति की आजादी को हमेशा अधिक महत्व दिया।
शिमला में रहते हुए जब आपातकाल की घोषणा हुई तो उन्होंने अपने सभी साथियों को यह विश्वास दिलाया कि राजनीतिक रूप से जो हो रहा है, उसकी आंच आप लोगों पर नहीं आएगी, इसका पूरा उत्तरदायित्व मुझ पर होगा। आप जो कहना चाहते हैं कहिए तथा विचारों को राजनीति के अधीन मत कीजिए। शिमला के इस संस्थान में जिन बुद्धिजीवियों पर सरकार की कड़ी नजर रहती थी, उनका भी इस संस्थान के अतिथिगृह में बहुत आदर के साथ स्वागत किया जाता था। यह विशेषता उनके आत्म-विश्वास, स्वाभिमान, साहस और निर्भीकता को स्पष्ट करती थी।
सन् 1980 में प्रोफेसर एस. सी. दुबे जम्मू विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त हुए तथा सन् 1983 तक उन्होंने सफलतापूर्वक अपने पद का निर्वहन किया। उनके कार्यकाल को आज भी जम्मू विश्वविद्यालय के सबसे अच्छे समय के रूप में देखा जाता है। जम्मू विश्वविद्यालय में कुलपति का कार्यकाल पूरा करने के बाद प्रोफेसर दुबे लगभग दो वर्ष तक दिल्ली में रहे जहां उन्होंने देश और विदेश के प्रमुख समाजशास्त्रियों और मानवशास्त्रियों से विचारों का आदान-प्रदान किया। इसके बीच विभिन्न विषयों पर उन्होंने अनेक लेख और पुस्तकें भी लिखीं।
सन् 1986 में प्रोफेसर दुबे को 'मध्य प्रदेश उच्च शिक्षा अनुदान आयोग' के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया। इस रूप में उन्होंने पहली बार मध्य प्रदेश के सभी विद्यालयों के लिए समान पाठ्यक्रम लागू करने की योजना को व्यावहारिक रूप दिया तथा विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों का वैज्ञानिक आधार पर आधुनिकीकरण किया। उस समय जो पाठ्यक्रम निर्धारित किए गए, मध्य प्रदेश के जागरूक शिक्षक यह मानते हैं कि वे पाठ्यक्रम अब तक के पाठ्यक्रमों में सर्वोत्तम थे। वे
अपने कार्यकाल को पूरा करने के पश्चात् प्रोफेसर दुबे सन् 1988 में पुनः दिल्ली आकर रहने लगे। इसी समय उन्होंने 'इण्डियन सोसायटी' पुस्तक की रचना की जिसका अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। सन् 1990 से लेकर 1994 तक की अवधि में उनकी तीन प्रमुख पुस्तकें प्रकाशित हुई— परम्परा, इतिहास-बोध और संस्कृति' 'शिक्षा, समाज और भविष्य' एवं 'संक्रमण की पीड़ा'।
उनकी पुस्तक ‘परम्परा, इतिहास बोध और संस्कृति' के लिए उन्हें ज्ञानपीठ ने 'मूर्तिदेवी पुरस्कार' से सम्मानित किया। इसी समय उन्होंने तीन अन्य पुस्तकें 'विकास का समाजशास्त्र', 'समय और संस्कृति' तथा 'भारतीय ग्राम' (इण्डियन विलेज का अनुवाद) लिखीं जो उनके निधन के कुछ ही दिनों के बाद प्रकाशित हुईं।
प्रोफेसर दुबे ने साहित्य और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों, परम्परा और परिवर्तन तथा अनेक दूसरे विषयों पर भी बहुत से निबन्ध तैयार किए थे जो अप्रकाशित रह गए। उन्होंने अधिकारी तन्त्र, संचार, विकास और शिक्षा पर भी अनेक गवेषणात्मक लेख लिखे तथा समाजशास्त्रीय अध्ययन की नयी सम्भावनाएं खोजने का प्रयत्न किया। अपनी पुस्तक 'मॉडर्नाइजेशन एण्ड डेवलपमेंट–सर्च फॉर ऑल्टरनेटिव पेराडिग्म्स' (Modernization and Development : Search for Alternative Paradigms) में उन्होंने आर्थिक और सामाजिक विकास का गम्भीर अध्ययन करके विकास की नयी धाराएं विकसित की।
5 जनवरी, 1996 को दिल का दौरा पड़ने के बाद डॉ. श्यामाचरण दुबे अस्पताल में भर्ती लेकिन जिन्दगी को सदैव रचनात्मक के साथ जीने की कामना करने वाले प्रोफेसर दुबे का अपनी पत्नी की उपस्थिति में उनसे बात करते-करते देहावसान हो गया। इलाहाबाद में कुछ ही दिन पहले दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मैं घिसट-घिसट कर मृत्यु की ओर बढ़ने की अपेक्षा पूरे होश और आत्मविश्वास के साथ जिन्दगी जीना चाहता हूं। उनकी मृत्यु के साथ वही हुआ जो वह चाहते थे। अपने जीवन में उन्होंने समाजशास्त्र की आन्तरिक स्थिति और उसके विकास का जो खाका खींचा था, उसके लिए प्रोफेसर दुबे का योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा।
अपने जीवनकाल में प्रोफेसर एस. सी. दुबे ने जो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं, उनका सम्बन्ध मुख्य रूप से जनजातीय जीवन, ग्रामीण समुदाय, भारत में दलित जातियों की प्रस्थिति, आधुनिकीकरण तथा विकास, परिवर्तन की प्रक्रियाओं तथा भारतीय समाज की संरचना से है।
श्यामा चरण दुबे द्वारा लिखी प्रमुख पुस्तकें
यह प्रोफेसर श्यामा चरण दुबे जी द्वारा रचित कुछ पुस्तकों के नाम हैं -
- An Indian Village.
- The Kamar
- Antiquity to Modernity in Tribal India.
- Changing Status of Depressed Castes in Contemporary India.
- Contemporary India and Its Modernization.
- Understanding Change : Anthropological and Sociological Perspectives.
- Parampara Aura Parivartana.
- India's Changing Villages : Human Factors in Community Development.
- Tradition and Development.
- Modernization and Development : In Search for Alternative Paradigms.
- On Crisis and Commitment in Social Sciences.
- Public Services and Social Responsibility.
आज आपने जाना
हां तो दोस्तों उम्मीद करते हैं की आपको हमारी आज की यह पोस्ट Shyaama charan dube ka jivan parichay आपके लिए उपयोगी रही होगी। हमने यही प्रयास किया है कि आपको एस० सी दुबे जी से जुड़ी हर जानकारी प्रदान कर सकें। फिर भी अगर आपके मन में कोई भी प्रश्न है तो हमसे कमेंट बॉक्स में पूछ सकते हैं।
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Please mention Mother and Fathers name of Mr S C dubey.
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