राधाकमल मुकर्जी का जीवन परिचय : Biography of Radhakamal Mukerjee in hindi

SUSHIL SHARMA
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राधाकमल मुकर्जी का जीवन परिचय : नमस्कार दोस्तों, हिंदी विज़न में आपका स्वागत है। आज हम राधाकमल मुकर्जी के बारे में जानेंगे। उनके जीवन के हर महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देते हुए हम उनकी उपलब्धियों और योगदान के बारे में विस्तृत वर्णन करेंगे। भारत मे अगर समाजशास्त्रियों की बात होगी तो उनमें राधाकमल मुकर्जी का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है। समाज विज्ञानियों में मुखर्जी जी का प्रमुख स्थान है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री होने के साथ ही वह एक अच्छे अध्यापक भी थे। उन्होंने समाज के विभिन्न विषयों पर चिंतन कर उससे हमें अवगत कराया और बहुत से लोगों के जीवन को सुधारने का काम भी किया। 

तो चलिए बिना किसी देरी के राधाकमल मुकर्जी जी की जीवनी के बारे में जानते हैं - 

राधाकमल मुकर्जी का जीवन परिचय | Radhakamal Mukerjee ki jivani

राधाकमल मुकर्जी का जीवन परिचय /जीवनी


राधाकमल मुकर्जी उन अग्रणी विचारकों में से एक हैं, जिन्होंने भारत में समाजशास्त्र को प्रतिष्ठित करने तथा अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और इतिहास के बीच पाए जाने वाले समान आधारों की खोज करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। 

उनका जन्म 7 दिसम्बर, 1889 को पश्चिम बंगाल के बरहामपुर नामक एक छोटे-से कस्बे में हुआ था। उनके पिता गोपालचन्द्र मुकर्जी एक प्रतिष्ठित वकील थे। वकील होने के साथ ही भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्ययन में भी उनकी विशेष रुचि थी | मुकर्जी के बड़े भाई का अधिकांश समय भी अध्ययन में ही व्यतीत होता था। घर के इस बौद्धिक वातावरण के कारण राधाकमल मुकर्जी ने भी अपने बचपन से ही इतिहास, साहित्य और संस्कृति की पुस्तकों का अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। 

अध्यन व  शिक्षा

उनकी आरम्भिक शिक्षा बरहामपुर के कृष्णनाथ कॉलेज में सम्पन्न हुई। यह समय बंगाल के सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काल था। उस समय वहां राजनीतिक सभाओं, जुलूसों, प्रभात फेरियों, शराबबन्दी तथा स्वदेशी आन्दोलन के कारण उनका सम्पर्क जन आन्दोलन से भी बढ़ने लगा। 

इसी के प्रभाव से राधाकमल मुकर्जी ने अपनी 17 वर्ष की आयु में सन् 1906 में कोलकाता के मेचू बाजार की गन्दी बस्तियों में प्रौढ़ों को शिक्षा देने के लिए एक सायंकालीन प्रौढ़ केन्द्र स्थापित किया। उनकी प्रेरणा से नगर के अनेक चिकित्सक भी इस केन्द्र पर प्रौढ़ों और बच्चों का निःशुल्क इलाज करने लगे।

4 मुकर्जी की उच्च शिक्षा कोलकाता (कलकत्ता) के प्रेसिडेन्सी कॉलेज में आरम्भ हुई, जहां उन्होंने अंग्रेजी और इतिहास के ऑनर्स कोर्स में प्रवेश लिया। यहां वह न केवल अनेक विद्वान प्राध्यापकों के सम्पर्क में आए, बल्कि उन्होंने कोंत, हरबर्ट स्पेन्सर, लेस्टर वार्ड, हाबहाउस और गिडिंग्स जैसे विद्वानों की पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया। यह सभी यूरोप और अमरीका के अग्रणी समाजशास्त्री थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने रिकार्डो, मिल, मार्शल और वॉकर जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों की रचनाओं का अध्ययन किया। 

जब उन्होंने कोलकाता की गन्दी बस्तियों की दुर्दशा देखी तथा वह वहां के लोगों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आए, तो उनकी रुचि अंग्रेजी और इतिहास से हटकर अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र की ओर बढ़ने लगी। सन् 1910 में राधाकमल मुकर्जी अपने ही गृहनगर बरहामपुर के कृष्णनाथ कॉलेज में अर्थशास्त्र के अध्यापक बनकर आए। उन्होंने लिखा है कि यह उनके जीवन का सबसे व्यस्त समय था, जब उन्होंने अध्यापन के साथ शोध-कार्यों में भी रुचि लेना आरम्भ कर दिया। सन् 1915 में बंगाल में चल रहे सहकारिता आन्दोलन पर शोध कार्य करने के लिए मुकर्जी को 'प्रेमचन्द रायचन्द छात्रवृत्ति' से सम्मानित किया गया।

 सन् 1916 में उनकी पहली पुस्तक 'भारतीय अर्थशास्त्र के आधार' (The Foundations of Indian Economics) प्रकाशित हुई। इसी अवधि में अपने कॉलेज की प्रिंसिपिल रेवरेंड ई. एम. ह्वीलर के प्रभाव से उनकी वनस्पति विज्ञान में भी रुचि बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उन्होंने परिस्थिति विज्ञान तथा समुदाय की पारिस्थितिकी के सम्बन्ध में रुचि लेना आरम्भ कर दिया, जिसने आगे चलकर उन्हें 'सामाजिक पारिस्थितिकी (Social Ecology) जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी। 





शिक्षण के क्षेत्र में डॉ राधकमल मुखर्जी

बरहामपुर के कॉलेज में पांच वर्ष तक शिक्षक रहने के बाद सन् 1916 में मुकर्जी लाहौर के सनातन धर्म कॉलेज में प्राचार्य के पद पर नियुक्त हुए, जहां वह केवल एक वर्ष ही रहे। सन् 1917 में जब कलकत्ता विश्वविद्यालय में आशुतोष मुकर्जी ने वहां 'कला और विज्ञान की स्नातकोत्तर परिषद्' की स्थापना की, तब उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिक दर्शन का अध्ययन करना शुरू कर दिया। यहीं से उन्हें भारतीय ग्रामीण समुदाय में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन' विषय पर शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करने पर 'डॉक्टर' की उपाधि मिली। सन् 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय स्थापना हुई, तो वह वहां अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए। सन् 1921 से लेकर सन् 1968 तक अपने जीवन का शेष काल उन्होंने इसी विश्वविद्यालय में रहकर व्यतीत किया।


अपने बौद्धिक जीवन में प्रोफेसर मुकर्जी तीन सामाजिक विचारकों से सबसे अधिक प्रभावित हुए। इनमें पहले वृजेन्द्रनाथ सील, दूसरे प्रोफेसर पैट्रिक गिड्स और तीसरे नरेन्द्रनाथ सेन गुप्ता थे। प्रोफेसर सील और प्रोफेसर गिड्स उन प्रमुख विद्वानों में से थे, जिन्होंने भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र को एक पृथक् अध्ययन विषय के रूप में स्थापित करने और इसका विकास करने में योगदान किया था।

 डॉ. सेन गुप्ता ने मुकर्जी को सामाजिक मनोविज्ञान का अध्ययन करने की प्रेरणा दी। बाद में डॉ. सेन गुप्ता तथा प्रोफेसर मुकर्जी ने मिलकर 'इन्ट्रोडक्शन टु सोशल साइकोलॉजी: माइण्ड इन सोसाइटी' (1928) नामक पुस्तक लिखी। भारतीय विचारकों के अतिरिक्त राधाकमल मुकर्जी ने पश्चिम के जिन सामाजिक विचारकों के साथ काम किया था तथा जिनकी रचनाओं ने उन्हें प्रभावित किया, उनमें एडवर्ड ए. रॉस, पार्क, मैकेन्जी तथा सोरोकिन प्रमुख थे।

लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के बीच एकीकृत दृष्टिकोण अपनाते हुए उनके अध्ययन और शोध पर बल दिया। इसी कारण, उन्होंने अपनी रचनाओं में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और इतिहास से जुड़े विषयों को साथ-साथ प्रस्तुत किया। वह विभिन्न समाज विज्ञानों को एक-दूसरे से अलग करके देखने के पक्ष में नहीं थे। राधाकमल मुकर्जी ने अपने जीवन में 50 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके चिन्तन की विविधता देखने को मिलती है। लगभग सभी देशी और विदेशी शोध पत्रिकाओं में उनके विद्वतापूर्ण लेख प्रकाशित होते रहे | यह लेख किसी एक विषय से बंधे हुए कभी नहीं रहे। सामाजिक विज्ञांनों के अतिरिक्त उनके लेखों में भारतीय धर्मग्रन्थों, महाकाव्यों और पुराणों तक के काफी प्रसंग देखने को मिलते हैं।

प्रोफेसर मुकर्जी शोध कार्य के लिए किसी परिकल्पना की आवश्यक नहीं मानते थे। उनके शैक्षणिक जीवन में भी कोई ऐसी निर्धारित योजना नहीं रही, जिससे बंधकर वह शिक्षण कार्य करते । वास्तव में, उनके विचारों में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, पारिस्थितिकी, कला, धर्म और मानवीय मूल्यों का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है। अपने जीवन के अन्तिम समय में उनकी रुचि अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अंग्रेजी में अनुवाद करने की ओर बढ़ने लगी थी।

राधाकमल मुकर्जी अनेक बौद्धिक संगठनों से जुड़े रहने के साथ ही सन् 1955 से 1958 तक लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद यद्यपि वह सेवानिवृत्त हो चुके थे, लेकिन विश्वविद्यालय के लिए उनके बौद्धिक योगदान को देखते हुए सन् 1958 से ही उन्हें विश्वविद्यालय के 'जे. के. इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशियोलॉजी' के ऑनरेरी निदेशक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। अगस्त 1968 में अपनी मृत्यु तक प्रोफेसर राधाकमल मुकर्जी इसी पद पर रहते हुए विश्वविद्यालय की सेवा करते रहे।

 राधाकमल मुकर्जी द्वारा लिखित प्रमुख पुस्तकें


  1. मानवता की एकात्मकता [Oneness of Mankind (1965)] 
  2. भारत की ऐहिक कला [The Cosmic Art of India (1965 ) ]
  3.  समुदायों का समुदाय [The Community of Communities (1966) ] 
  4. मानव का दर्शन [The Philosophy of Man (1966)]
  5. भारतीय अर्थशास्त्र के आधार [The Foundation of Indian Economics (1916)]
  6. सामाजिक पारिस्थितिकी [Social Ecology (1945)]
  7. कला का सामाजिक प्रकार्य [The Social Function of Art (1948)] 
  8. मूल्यों की सामाजिक संरचना [The Social Structure of Values (1949)] 
  9. जीवन की भारतीय पद्धति [The Indian Scheme of Life (1949)] 
  10. तुलनात्मक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त [The Principles of Comparative Economics (1922)]
  11. पूर्व के लोकतन्त्र [ Democracies of the East ( 1923)] 
  12. अर्थशास्त्र की परिधियां [Borderlands of Economics (1925)]
  13. क्षेत्रीय समाजशास्त्र [Regional Sociology (1926) ]
  14. सामाजिक मनोविज्ञान का परिचय : समाज में मस्तिष्क [Introduction to Social Psychology : Mind in Society (1928)]
  15. रहस्यवाद का सिद्धान्त एवं कला [The Theory and Art of Mysticism (1937)]
  16. मानव तथा उसकी बस्ती [Man and His Habitation (1940)]
  17. आचारों की गत्यात्मकता [The Dynamics of Morals (1951)]
  18. भारतीय सभ्यता का इतिहास [A History of Indian Civilization (1956)] 
  19. विवाह की परिधि [The Horizon of Marriage (1956)]
  20. भारत की संस्कृति एवं कला [The Culture and Art of India (1959)] 
  21. समाज विज्ञान का दर्शन [The Philosophy of Social Science (1960)] 
  22. व्यक्तित्व का दर्शन [The Philosophy of Personality (1963)]
  23. मानव उद्विकास के आयाम [The Dimensions of Human Evolution (1963)] 
  24. मूल्यों के आयाम [The Dimensions of Values (1964)] 
  25. सभ्यता का घनत्व [The Density of Civilization (1964)] 


राधाकमल मुकर्जी ने अपने जीवन के अन्तिम समय में गीता पर एक विस्तृत टीका लिखी थी, जो उनकी मृत्यु के बाद सन् 1971 में 'The Song of the Self Supreme' के नाम से प्रकाशित हुई। प्रोफेसर मुकर्जी की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि उनके विचार ज्ञान की किसी एक शाखा से बंधे हुए नहीं थे। इसके बाद भी उनकी अधिकांश रचनाएं अर्थशास्त्र तथा दर्शन पर आधारित थीं। 

समाजशास्त्र से सम्बन्धित उनके विचार मुख्य रूप से क्षेत्रीय समाजशास्त्र, सामाजिक पारिस्थितिकी, कला के सामाजिक प्रकार्य, मूल्यों की सामाजिक संरचना, विवाह के आयाम तथा विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले अनेक लेखों के रूप में देखने को मिलते हैं। 

आर्थिक और सामाजिक व्यवहारों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध, सामाजिक पारिस्थितिकी, सार्वभौमिक सभ्यता, क्षेत्रीय समाजशास्त्र तथा मूल्यों की सामाजिक संरचना आदि उनके द्वारा विकसित कुछ ऐसे विचार हैं, जिन्होंने प्रोफेसर मुकर्जी को एक प्रबुद्ध समाजशास्त्रीय विचारक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। यही कारण है कि समाजशास्त्र के क्षेत्र में राधकमल मुकर्जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। 




आज आपने जाना 

हां तो दोस्तों उम्मीद करते हैं की आपको हमारी आज की यह पोस्ट Radhakamal Mukerjee ka jivan parichay आपके लिए उपयोगी रही होगी। हमने यही प्रयास किया है कि आपको राधाकमल मुकर्जी जी से जुड़ी हर जानकारी प्रदान कर सकें। फिर भी अगर आपके मन में कोई भी प्रश्न है तो हमसे  कमेंट बॉक्स में पूछ सकते हैं। 

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